जीवन की जीत


क्या सारी जिंदगी  हारे हारे ही जीना होगा ? 
ये तुम पर निर्भर हे। 
अगर जीत की बहुत आकांक्षा है, तो हारे हारे हि जीना होगा।

अगर जीत की आकांक्षा छोड़ दो, तो अभी हि जीत जाओगे। 
फिर हार कैसी, हार का अर्थ ही होता हे की जीतने की बड़ी वासना हे।  
उसी वासना के कारण हार अनुभव में आती हे। 

कभी आप ने भी जीवन में अनुभव किया होगा की, आप जान बूच कर हार जाते हे,
ये ऐसे अनुभव हे जहां आप हार स्वीकार कर लेते हे और जिनके हार में भी हार नहीं होती, बल्कि जीत का अनुभव होती हे। पर जीवन के हर अनुभव ऐसे नहीं होते, जीत से ज्यादा आप को हार की स्वीकृति नहीं चाहिए होती,

क्यों की आप इस कारण से अपमानित होने का अनुभव करने लगते हे। 
इसका मूल कारन ये हे की, जो जीत की आकांक्षा  आप मन में लेकर चलते हे और जिसके मिलने पर आपको गौरव का अनुभव होगा यदि नहीं तो अपमानित का दर्द लेकर थम जायेंगे। 
पर  जब आप जिंदगी के साथ बिना किसी आकांक्षा से चलेंगे, तो हार की अनुभूति ही नहीं होगी। 
आप हर परिस्तिति में खुश रहेंगे, जो भी अनुभव मिलेगा उसे प्रसन रहेंगे, क्यों के किसी प्रकार का भी मन में आकांक्षा नहीं रहेगी। 
ऐ बात मन में जीत की आकांशा रकके जीने में भी लागू होती हे। अगर जीत को अनुभव करनेकी इच्छा मन में रखोगे, थो कभी जी ही नहीं पाआगे।

कहने का मतलब हे की सिर्फ जिओ, इसी को समर्पण कहते है।
जरा सोचोगे थो समज जाओगे की तुम्हारे जीतने या न हरने की आकांशा तुम्हारे अहंकार से उत्पन होती हे, और जब तक इसे तुम पालोगे या बढ़ावा दोगे, तुम्हारे हर जीत में एक नयी हार पैदा होती जाएगी।
और यदि तुम इस अहंकार तो त्याग कर जियोगे तो जिसे तुम अबतक हार मानते आये हो, वही हार एक नया द्वार खोलते जाएगी।
यह अहंकार होना इस बात का संकेत हे की तुम सब के सात अपनेपन की महसूसगी नहीं करते, और जब इस अहंकार को त्याग दोगे तो एक नया अपनेपन की मेहसुगी होगी।

अगर आप हार की दर्द महसूस कर रहे तो, उससे बहार आइये, क्यों की ऐसे तो वक्त के सात आप का दर्द कम होगा नहीं। अगर आपको अपने तकदीर बदलना हे, तो मन के बंद दरवाज़े खोलिये , आशा की नयी उमंग और किरण भीतर लाइये।  इस अहंकार के जीवन से बहार आके एक हलचल भरा जिंदगी जीयिए।  दुसरो  के दर्द बांटने में भी खुशी मेहसूस करिये। 
आकांक्षा और अहंकार का जीवन को छोड़ एक उत्साह और उमंग भरी जीवन को निर्भय और आशावादी होकर जिये।

जैसे भगवद गीता में कहा गया हे,
"कर्मणये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन । मां कर्मफलहेतुर्भू: मांते संङगोस्त्वकर्मणि" ।।
अर्थ :
"श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा: आप को अपने निर्धारित कर्तव्य का पालन करने का अधिकार है, लेकिन आप कभी कर्म फल की इच्छा से कर्म मत करो (कर्म फल देने का अधिकार सिर्फ ईश्वर को है)। कर्म फल की अपेक्षा से आप कभी कर्म मत करें, न ही आप की कभी कर्म न करने में प्रवृर्ति हो (आप की हमेशा कर्म करने में प्रवृर्ति हो) ।।"

ऐसे निराकांक्षा और निस्वार्थ होकर जीने में ही जीवन की जीत हे।

आप सदा खुश रहे।  

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